दलित शब्द सुनते ही मन में ऐसे जनसमुदाय का बोध होता है जो गरीबी में जी रहा है जिसके पास जीने के लिए मूल भूत सुविधाये भी नही है शिक्षा और स्वास्थ हेतू उत्तम भोजन की व्यवस्था भी नही है और ये भी आज़ादी के 70 साल बाद । पर इसके लिए दोषी कौन है ।
जब देश आज़ाद हुआ था तब देश की जनसंख्या 40 या 50 करोड़ रही होगी । अंग्रेज जा चुके थे और सरकारी नौकरियों में लाखों पद खाली हुए थे तभी सरकार ने दलितों के लिए 17 प्रतिशत नौकरियों में आरक्छन कर दिया तो उस समय जो व्यक्ति 20 से 30 साल के बीच रहा होगा उसको नौकरी मिली होगी । जिसके पास जैसी शिक्षा होगी उस हिसाब से ।
और उसने अपने बच्चे पढ़ाये होंगे जो 20 साल बाद भी दलित का ठप्पा लगा कर पहुच गए नौकरी के लिये पढ़ाई के लिए और इस उभरते हुए दलित वर्ग ने अपनी उन्नति की चाह में ये भी नही सोचा की अभी उसके लाखो करोडो दलित भाईओ का उद्धार होना बाकि है । ये वर्ग तो बस अपनी उन्नति ही सर्वोपरि मान कर पूर्ण स्वार्थ पूर्ति के लिए आगे बढ़ता रहा ।
और फिर अगले 20 सालो में उनके ही वंशज जिन्होंने 1950 में बाजी मार ली थी ने फिर से दलित का ठप्पा लगा कर शिक्षा और नौकरी हथिया ली और वास्तविक दलित हर साल अपने अच्छे दिन आयेगे इस इनतज़र में बैठ जाया करता था ।
दलितों के लिए निर्धारित सीट पर न तो कोई स्वर्ण जा सकता है और न ही ले सकता है । वो सीट दलित को ही मिलेगी अब चाहे उसके पिता आईएएस हो या मंत्री उसको दलितों वाला लाभ मिलेगा ही ।
आज दलितों की जो स्तिथि है उसके लिए उनके ही सक्षम दलित भाई जिम्मेदार है जो उनके हिस्से की शिक्षा अनुदान और आरक्छन हड़प कर फेसबुक पर सवर्णों को गालिया देते है ।
जो भी सरकार आती है वो दलितों के उद्धार के वादे करती है हजारो योजनाये लागू करती है पर वो सब उनके हीं सक्षम भाई बंद दलित होने का नतकनकर के ले जाते है और वास्तविक दलित को ये लगता है की उनका हक़ सवर्ण अपनी जेबइ रखे है और उनको नही दे रहे है ।
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